आज कितना काम किया। थक गई हूं। थोड़ी देर रिलेक्स कर लिया जाए। चाय बनाकर पी लेती हूं। थोड़ी भूख भी महसूस हो रही है। चाय के साथ कुछ खा भी लूंगी। मैंने लैप–टॉप को भी पांच दस मिनट के लिए रेस्ट दिलाने को बंद किया और खुद किचन में चली गई। चाय के लिए पानी गैस पर रखकर उसमें पत्ती और चीनी डालकर फ्रिज खोलकर देखने लगी हूं। शायद खाने को कुछ न कुछ मिल जाए। बस ब्रैड ही पड़ी हुई है। ब्रैड के दो पीस निकाल लिए हैं और चाय में डालने के लिए दूध भी। वैसे इस समस मैं दूध वाली चाय नहीं पीती। पर ब्रैड के साथ दूध वाली चाय ही ठीक लगती है। मैंने चाय के खौलते पानी में दूध डाला और ब्रैड गर्म करके उस पर मक्खन लगा लिया। सब कुछ लेकर मैं कमरे में आ गई। टीवी ऑन किया और म्यूजिक चैनल लगा लिया …मस्ती चैनल है, अच्छे गानी आते हैं। पुराने, मेरी पसंद के। आप भी सुनो— ‘तस्वीर तेरी दिल में जिस दिन से…’
बै्रड पूरी खाकर मैंने टीवी की आवाज थोड़ी कम की और दोबारा लैपटॉप ऑन कर लिया। फेसबुक ओपन की। कई फ्रेंड रिक्वेस्ट्स आई हुई हैं। पहले तो बिना देखे ही सारी असेप्ट कर लेती थी। पर अब देखकर ही असेप्ट करती हूं। कइयों को तो अनफ्रेंड भी कर रही हूं। ख्वामख्वाह फ्रेंड लिस्ट बढ़ाने का क्या फायदा…
…वाह क्या तस्वीर है। मैंने तो हमेशा बंधी हुई दाढ़ी में ही देखा है। अब शायद दाढ़ी थोड़ी छोटी करवाकर रखी हुई है। ये तस्वीर कुछ पुरानी लग रही है। कमाल…। मैंने तस्वीर शेयर कर ली। …बड़़ी दाढ़ी से मेरी कई यादें जुड़ी हुई हैं। वैसे आय हेट दाढ़ी…
इस बड़ी खुली दाढ़ी को देखकर यादें उमडऩे लगीं।
***
…बचपन में हम सभी बहन–भाई रिक्शा में स्कूल जाते थे। रिक्शा वाला बुजुर्ग था। उसकी दाढ़ी बहुत बड़ी थी। उस समय की काफी बातें भले ही भूल गई हैं, पर कुछ बातें अभी तक हू–ब–हू यादों में उकरी हुई हैं।
मुझे याद आ रहा है, उस कॉलोनी में तीन–चार घरों के बच्चे उसके रिक्शा में जाया करते थे। उस बुजुर्ग की खास बात यह याद है कि वो किसी को भी रोज एक ही जगह पर नहीं बैठने देता था। जगह बदलने के कारण एक बच्चे को रिक्शा के अगले डंडे पर भी बैठना पड़ता था। जब मोहित की बारी होती तो वो सारे रास्ते में बाबा की दाढ़ी खींचता रहता, उसके साथ खेलता रहता था। बाबा कभी–कभी डांटता, पर प्यार से ही…।
जिस दिन आगे बैठने की बारी मेरी होती, उस दिन पूरा वक्त मैं खीझी रहती। डंडे पर बैठना मुझे बिलकुल भी अच्छा न लगता। रिक्शा चलाते हुए जब बाबा की दाढ़ी सिर या मुंह पर लगती तो मैं और खीझ जाती।
कई बार मैं आगे बैठने से इनकार कर देती। पर मम्मी जी की डांट से डरते हुए बैठना पड़ता।
जिस दिन मुझे ऐसा करना पड़ता, उस दिन ऐसा लगता जैसे स्कूल दूर हो गया हो। सोचकर मुझे कई बार हंसी भी आ जाती है। बच्चे का मन भी कैसे सोचता है…।
बाबा सारे रास्ते शब्द गाते हुए जाता– लख खुशियां पातशाहियां… फिर सारे बच्चे भी उसके पीछे–पीछे गाते। एक जगह चढ़ाई सी आती, वहां हम सारे बच्चे रिक्शा से उतर जाते। बाबा हमें आवाजें लगा–लगाकर बैठने को कहता पर हम आगे–आगे दौडऩे लगते…। बस सरिता नहीं उतरती थी। वो थोड़ी मोटी थी। शायद उसे बार–बार चढऩा और उतरना मुश्किल लगता था। अगर उतर भी जाती तो दोबारा चढऩा उसके लिए मुश्किल हो जाता। रोहित उसका मजाक उड़ाया करता था।
बाबा एक जगह रोज पानी पीने के लिए भी रुका करता था। हम सभी भी उतरकर वहां से पानी पीने लगते।
टोंटी एक दुकान के बाहर की तरफ लगी हुई थी। वहां से हम जेब खर्च के लिए मिले पैसों से टॉफियां और बिस्किट लिया करते थे। उन बिस्किटों का स्वाद आज भी मुंह में घुलने लगता है। कभी–कभी एक आध बिस्किट बचाकर घर भी लेजाते थे।
बाबा ने कभी छुट्टी नहीं की थी। बहुत बार सोचते थे कि काश! बाबा आज न आए और स्कूल से हमारी भी छुट्टी हो जाए। पर जिस दिन सोचते थे उस दिन बाबा समय से पहले ही आ जाता। जब घर पर खाने में कोई खास चीज बनती तो वो बाबा के लिए भी रखी जाती।
जब कभी पापा हमारे बाजार जाने के लिए जीप नहीं भेज पाते थे, तब भी बाबा को ही बुलाया जाता था। फिर रिक्शा पर ही बाजार जाते थे। जब बाजार से लौटते हुए देर हो जाती तो बाबा खाना भी खाकर ही जाता था।
उसके घर में पता नहीं कौन–कौन था। कई बार मम्मी से बात करते हुए सुना था कि बहू–बेटा हैं पर हमने कभी उन्हें देखा नहीं था। देर होने पर भी उसके घर से कोई पूछने नहीं आया था…।
***
जिस दूसरे व्यक्ति की बड़ी दाढ़ी मैंने देखी थी वो हरकेश था। नाना जी की दाढ़ी जरूर इतनी बड़ी थी। पर वो तो मैंने केवल तस्वीर में ही देखी थी। …उन्हें देखकर कभी डर नहीं लगा था।
हां, तो मैं हरकेश की बात कर रही थी, वो भी दाढ़ी बांधकर नहीं रखता था। हाइट भी उसकी कोई छह फुट के करीब थी। स्मार्ट था, अच्छा लगता था शायद, पर दाढ़ी…।
पता नहीं दाढ़ी का डर मेरे मन के किस कोने में बैठा हुआ था। बड़ी हो जाने के बाद आज भी यह डर मेरे अंग–संग ही रहता है…।
कहते हैं बचपन में अगर डर मन में बैठ जाए, तो वो सारी उम्र नहीं जाता। पर यह डर तो बड़ों के मनों से भी नहीं निकला… मैं तो तब केवल छह साल की ही थी।
आज भी मार–धाड़ वाली फिल्में देखने की मेरी हिम्मत नहीं होती। उन दिनों टीवी, रेडियो और ईवन घर पर भी एक ही टॉपिक होता था– टैरेरिज्म…। इतनी छोटी उम्र और इतनी बड़ी छाप…।
मुझे आज तक अस्पताल का दृश्य नहीं भूला। कभी टीवी पर कोई लड़ाई का सीन चल रहा हो तो वही दृश्य आंखों के आगे आ जाता है। पापा तब अस्पताल में दाखिल थे। यह तो याद नहीं कि क्या हुआ था, पर इतना याद है कि वो अस्पताल में थे। मैं और मम्मी रूम के बाहर खड़े थे। यह भी याद नहीं कि कमरे के बाहर क्यों खड़े थे। यह फिरोजपुर शहर की बात है। एकदम पूरे अस्पताल में शोर मच गया। एक नर्स जल्दी से मम्मी को यह कहती हुई गई कि बच्ची को फटाफट रूम में ले जाओ। आज फिर आतंकियों ने गाड़ी पर हमला कर दिया है। जख्मी यहीं लाए जा रहे हैं।
मम्मी जल्दी से मुझे कमरे में ले गए। बाहर से आ रही आवाजें मेरे कानों से टकराती रहीं।
पापा ने पूछा था कि क्या हुआ। मम्मी ने बताया तो पापा बुदबुदाने लगे थे– ‘क्या फायदा इस सब का। इस तरह भला क्या हो जाएगा… पर समझाए कौन इन्हें?’
मैं बैड पर बैठी हुई ने खिड़की से पर्दा हटाकर बाहर देखा। …बरामदे में बाहर स्टेचरों पर ही कुछ लोगों को रखा हुआ था। सब खून से लथपथ। खौफनाक दृश्य था। मैंने रोने लगी। पापा उठकर मेरे पास आ गए। पर्दा ठीक किया और मुझे चुप कराने लगे। मैंने रोते हुए ही पूछा था– ‘पापा क्या हुआ है इन्हें…?’
उन्होंने समझाते हुए कहा था, ‘कुछ नहीं बेटा, एक्सीडेंट हुआ होगा। अब ठीक हो जाएंगे सब…।‘
पर मैं बहुत डर गई थी तब। पापा ने मुझे घर भेजने को कह दिया।
मम्मी ने मुझे गोपी अंकल के साथ घर जाने को कहा। गोपी अंकल घर के काम करते थे। रोटी गोपी अंकल ही बनाते थे। उनका बनाया खाना बहुत स्वाद होता था। मम्मी ने उन्हें कहा था— ‘बरामदे में से ध्यान से लेकर जाना।‘ मैं जाना नहीं चाहती थी। बहुत डरी हुई थी। मैंने पापा से कहा। लेकिन वही तो मुझे घर भेजने को कह रहे थे।
गोपी अंकल ने उठाकर मुझे कंधे से लगाया और आंखें बंद करने को कहा। मम्मी ने कई बार देखा कि मैंने आंखें अच्छी तरह बंद कर ली हैं या नहीं। बाहर बरामदे में आकर मैंने थोड़ी–सी आंखें खोलने की कोशिश की, लेकिन डर से फिर बंद कर लीं।
घर आकर गोपी अंकल ने टीवी लगा लिया। खबरें आ रहीं थीं। खबरों में बड़ी–बड़ी दाढ़ी वालों की तस्वीरें दिखाई जा रही थीं। बताया जा रहा था कि गाड़ी पर हमला करके इन लोगों ने कई लोगों को मार दिया है। अस्पताल के बरामदे में पड़े लोग मरे हुए थे, ये सोचकर मैं और डर गई…। डर से मैं गोपी अंकल के साथ चिपक गई।
वो कहने लगे– ‘बेटा आप बैठो, मैं खाना बनाकर लाता हूं।‘
मैं भी गोपी अंकल के पीछे–पीछे रसोई में चली गई।
मैंने रसोई में गोपी अंकल से पूछा, ‘अंकल , जो टीवी में बता रहे थे, वो अस्पताल के बारे में था…।‘ गोपी अंकल ने प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा— ‘नहीं बेटा…।‘
खाना खाकर मैं सो गई। सुबह पता चला कि स्कूल कुछ दिनों के लिए बंद हो गए हैं। कफ्र्यू लग गया था। मैंने गोपी अंकल से पूछा, ‘ये कफ्र्यू क्या होता है?’
उन्होंने बताया, ‘सभी अपने घरों में ही रहेंगे। अब कोई बाहर नहीं जा सकता।‘
घर पर रहो, आराम से उठो, खेलो और सो जाओ। स्कूल से भी छुट्टी। घर के लिए काम भी नहीं मिलेगा। ये सुनकर मैं फिर खेलने में मस्त हो गई।
***
कुछ दिनों बाद पापा का ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया। यह नया शहर था, नया स्कूल और नया रिक्शे वाला। यही बड़ी दाढ़ी वाला, जिसके बारे में आपको बता रही हूं।
शायद मन में दाढ़ी का कोई डर था, जिस कारण मैं इस बाबा से भी बस उसकी बड़ी दाढ़ी के कारण खीझी रहती थी।
पर…, पर हरकेश को मिलने के समय तो मैं बच्ची नहीं थी। कॉलेज की स्टूडेंट थी। और टैरेरिज्म के बारे में भी पूरी तरह जान चुकी थी, फिर भी…।
मेरे मन में दाढ़ी वालों के प्रति इतना डर था कि मैं गुरुद्वारे में जाती हुई भी डरती थी।
बड़ी दाढ़ी के बारे में मेरे मन में ये डर घर कर गया हुआ था कि ये लोगों को मार देत हैं…।
तभी तो बाकी बच्चे बाबा की लंबी दाढ़ी के साथ खेलने लगते थे, पर मुझे डर लगने लगता था…।
जैसे–जैसे मैं बड़ी होती गई, ये डर कम होने के बजाय बढ़ता ही था। शायद इसी कारण मैं हरकेश के नजरीक भी नहीं हो पाई…। अगर बड़ी दाढ़ी वालों से इतना ही डर था, तो फिर वो मुझे अच्छा क्यों लगने लगा था! …अजीब था यह भी। कोई अच्छा भी लगे और उससे डर भी लगे…।
कभी–कभी लगता, शायद हरकेश के बाद यह डर मेरे मन से निकल गया हो, पर अगर निकला होता, तो ये दोबारा न लगता…।
कुछ दिनों से आ रही खबरों से मेरा यह डर और बढ़ गया है। कुछ देर पहले जब मैंने पंद्रह–सोलह साल के लड़कों को सड़क पर नंगी तलवारें लेकर बाइकों पर घूमते देखा, तो वही डर मेरे मन में मंडराने लगा जैसे…!!!
लो, बात क्या हो रही थी, कहां से शुरु हुई और कहां पहुंच गई…। वैसे सोचने वाली बात यह है कि मुझे बड़ी दाढ़ी से डर लगता था या है तो मैं तस्वीर देखकर क्यों न डरी…। क्या बेहुदा बात है। इन्हें तो मैं अच्छी तरह जानती हूं, ही इज ए नाइस पर्सन। बल्कि तस्वीर मुझे तो पसंद ही बहुत आई। बस यह तस्वीर पुरानी यादों में ले गई, जो शायद यूं ही फालतू सी हैं। चलो जो भी हो, मैं फोन करती हूं दाढ़ी वाले बाबे को। कहते हैं– छा गए हो फेसबुम पर, हा हा हा…।
…लो। इन सोचों में मेरी चाय भी ठंडी हो गई है।
फोन करने के बाद चाय भी बनाती हूं।
✍️रीतू कालसी
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