क्या वाकई में ये सभी सूफी इतने महान थे? इन्होने हिन्दू-मुस्लिम एकता बढ़ाई और गरीबों की सेवा की?

जमीअत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद असद मदनी ने ‘अजमेर 92’ के नाम से रिलीज होने वाली फिल्म को समाज में दरार पैदा करने का एक प्रयास बताते हुए कहा है कि ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेरी हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक थे, इसलिए इस फिल्म पर प्रतिबन्ध लगाया जाये। यदि वे सही इतिहास पढेंगे तो उन्हें पता चलेगा कि जिन्हें हम संत मानते है उनके कृत्य हिदुओं के व् मानवता के विरुद्ध भी थे।
गौरतलब है कि साल 1992 में अजमेर में ये घटना हुई थी जिससे पूरा देश हिल गया था। रिपोर्ट्स के मुताबिक अजमेर में लगभग 300 लड़कियों के साथ न्यूड फोटो की आड़ में ब्लैकमेल करके उनका रेप किया गया था।


इतिहास हमारे चिंतन को मजबूती प्रदान करता है इतिहास हमे हमारे वर्तमान और भूतकाल को समझने मे मदद करता है। ताकि भूतकाल मे जो गलतियां हो चुकी है उन्हे भविष्य मे न दोहराया जाए। इसलिए इतिहास अतीत को जानने, वर्तमान को समझने एवं भविष्य को सुधारने में सहायक हो सकता है। यदि गलतियों को नहीं सुधारेंगे, तो कट्टरता से कट्टरता और पनपेगी तथा स्वदेशी संस्कृति और संस्कारों का और अधिक ह्रास होगा।
दुनिया के अधिकतर लोगों का मानना है कि इतिहास की गलतियों को भी सुधारा जाना चाहिए। क्योकि किसी भी क्षेत्र में परिवर्तन और सुधार किए बिना उज्ज्वल भविष्य की कामना नहीं की जा सकती है। इतिहास की गलतियों को सुधारना इसलिए भी जरूरी होता है, ताकि वास्तविकता को जान सकें।
प्राय: हिन्दू समाज में भी यही माना जाता है कि भारत में जितने भी मुस्लमान सूफी, फकीर और पीर आदि हुए हैं, वे सभी उदारवादी थे। हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक थे। वे भारतीय दर्शन और ध्यान योग की उपज थे। मगर यह एक भ्रान्ति है।
अधिकतर सूफियों ने भारत में हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित करने का काम था। ये सूफी खुद मूर्ति पूजा के विरुद्ध थे। मीर मुहम्मद सूफी और सुहा भट्ट की सलाह पर कश्मीर के सुल्तान सिकंदर ने अनंतनाग, मार्तण्ड, सोपुर और बारामुला के प्राचीन हिन्दुओं के मंदिरों को नष्ट कर दिया था।
भारत में अक्सर ‘सूफी परंपरा’ की तुलना ‘भक्ति आंदोलन’ से की जाती रही है। सूफियों को भी ‘संत’ कहा जाता है। सवाल उठता है कि क्या वाकई में ये सभी सूफी इतने महान थे? इन्होने हिन्दू-मुस्लिम एकता बढ़ाई और गरीबों की सेवा की?
शांतिपूर्ण सूफीवाद’ का मिथक, कई सदियों तक इस्लामिक विचारकों और वामपंथी इतिहासकारों द्वारा खूब फैलाया गया है। वास्तविकता यह है कि अधिकतर सूफी संतों को भारत में इस्लामिक को बढ़ावा देने, धर्मांतरण और इस्लाम को स्थापित करने के उद्देश्य से लाया गया था।
भारत आने वाले अधिकतर सूफी इस्लामी आक्रांताओं के साथ आये थे और ये सूफी भारत के हिन्दू राजाओं के विरुद्ध माहौल भी तैयार करते थे। इस्लामी आक्रांताओं का राज आने पर इन्हें महत्वपूर्ण स्थान मिलता था, इसीलिए गरीब लोग भी इन्हें अपना सब कुछ मान लेते थे।
पृथ्वीराज चौहान दिल्ली पर राज करने वाले अंतिम हिन्दू सम्राट थे। उनके काल में ही मोईनुद्दीन चिश्ती नामक एक ‘सूफी संत’ 12 वी सदी में भारत आया था। लेखक डबलू डी बेग की पुस्तक “होली मोईनुद्दीन चिश्ती 1960” व् अंग्रेज लेखक मिस्टर माइकल की पुस्तक “दा पॉवर ऑफ़ इंडिया 1930“ के अनुसार ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के एक शाहगिर्द व् एक क्षेत्र के सूबेदार मलिक खिताब ने मालवा क्षेत्र के पाटली फोर्ट के एक हिन्दू राजा को युद्ध में परास्त कर उसकी युवा बेटी को जबरन उठा लिया था और उसके बाद सूबेदार मलिक खिताब ने उस युवा लडकी को ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती को सौप दिया था और ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने जबरन धर्मांतरण कर उससे शादी की थी। इससे पहले उनकी दो शादी हो चुकी थी। सवाल उठता है कि इतिहास में ये कार्य एकता के प्रतीक कैसे हो सकते है?


दरगाहें (मजार) बुनियादी तौर पर मुस्लिम सूफियों और संतों की कब्रों की स्मृतियाँ हैं। लेकिन देश में बिना इतिहास को जाने कुछ दशकों से सभी मजारों की इबादत की जा रही है। दरगाहों (मजार) की इबादत आज भारतीय उपमहाद्वीप में सांस्कृतिक इस्लाम का अंग बन चुकी हैं, हालांकि इस्लामी सिद्धांतों से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। भारत में आजादी के बाद भी शांतिपूर्ण सूफीवाद’ का मिथक, कई सदियों तक इस्लामिक ‘विचारकों’ और वामपंथी इतिहासकारों द्वारा खूब फैलाया गया है। जबकि वास्तविकता इनके विपरीत है।
इतिहासकार एमए खान ने की पुस्तक ‘इस्लामिक जिहाद: एक जबरन धर्मांतरण, साम्राज्यवाद और दासता की विरासत’ के अनुसार इन सूफी संतों ने बलपूर्वक हिंदुओं के इस्लाम में धर्म परिवर्तन में भी बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी।
इतिहास के अनेक किस्से कहानियां गौरवान्वित करने के साथ रोमांचकारी है। परन्तु कुछ नासूर बन दुःख और दर्द देते हैं। इतिहास में भूतकाल में जिससे भी जो भी गलती हुई है या सही हुआ है, उसे ज्यों का त्यों आने वाली पीढ़ी को जानने का अधिकार है। हमारी राय में मौलाना महमूद मदनी की ‘अजमेर 92’ फिल्म को बैन करने की मांग उचित नहीं है।

लेख-अशोक बालियान, चेयरमैन, पीजेंट वेलफेयर एसोसिएशन

 

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