शंकर से समाधिस्थ, हम भी
बैठे थे कब से,
वे हमारे जल, जंगल, जमीन
सब कुछ लीलते गये
एक चतुर व्यापारी बनकर।
हम पहाड़ी थे ही सरल
जो सब कुछ लुटाते रहे,
उनके हौंसले बुलंद होते रहे
हमारा प्रतिकार न पाकर।
समय आ गया
समाधि तोड़ डालो,
उठो! स्वाराध्य शंकर से
तांडव हेतु सचेत हो जाओ।
वरना गढ़भूमि की चित्कार
सिसकियों में बदल जायेगी,
बद्री-केदार औ’ गंगा-यमुना
निःसंदेह विलय हो जायेंगी।
मत कहना फिर ज्योतिर्मठ ने
तुम्हें जगाया न था,
शंकराचार्य ने स्वरक्षा हेतु
चिरनिंद्रा से उठाया ही न था।
✍️ डा स्वाति मिश्रा