एक ही पैर पर थिरकती
झुक कर, कुछ तिरछी हो
नृत्य की विभिन्न भंगिमाओं
को निरंतर साधती अवनी,
निशा दिवस की सखी बनी
खेलती रहती है संग उनके,
करती गलबहियां, गुनगुनाती!
धरा पहनती है गहरा नीला
दुशाला,रंगा है आधा सिंदुरी भी,
उस आंचल को ओढ़ती
बनाती संतुलन दोनों छोर में
एक ओर से खींचती,
दूजी ओर छोड़ती, यूं ही
आंचल को सरकाती, संभालती
सूर्य के चहूं ओर मतवारी,वो डोलती!
वो डोलती,मन खोलती…
आंचल को कुछ पलों के लिए ही सही
आधा नीला,आधा सिंदुरी वो ओढ़ती!
यही वक्त अनमोल, अद्भुत
संतुलन के प्रयास की सार्थकता
को सहज ही समझा देता,
कितनी ही असंतुलित हो जायें
परिस्थितियां, जीवन पथ पर
निरंतर नृत्य करते हुए भी
संतुलन संभव है… हां संभव है!
✍️संयुक्ता त्यागी (मेरठ)
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