वाराणसी। छावनी क्षेत्र स्थित 18वीं शताब्दी में निर्मित सेंट मेरीज चर्च बनारस ही नहीं बल्कि उत्तर भारत का संभवत: सबसे पुराना प्रोटेस्टेंट चर्च है। 29 अप्रैल 1810 में डेनियल कोरी ने इसकी नींव रखी थी। 1812 में चर्च बनकर तैयार हुआ। बाद में इसमें और निर्माण होते रहे। इसके पहले पादरी सी. साइमन थे। चर्च को एंग्लिकन चर्च, गैरिसन चर्च व वेस्टेड इन क्राउन के नाम से भी जाना जाता है। उस दौर में यह स्थान ब्रिटिश छावनी थी।
नक्काशीदार शैली में बने इस गिरजाघर की फर्श पिकाक कार्पेट से सुसच्जित थी। चर्च में लगे ब्रेंच इस तरह से डिजाइन किए गए थे कि प्रार्थना करने आने सैनिकों की बंदूकें आराम से रखी जाएं। कहीं जाने से पहले सैनिक यहां प्रार्थना करना नहीं भूलते थे। अंग्रेजी में प्रेयर की परंपरा होने के कारण ही इसे इंग्लिश चर्च का नाम दिया गया।
1961 में बनारस प्रवास के दौरान क्वीन एलिजाबेथ ने इसी गिरजाघर में प्रार्थना की थी। वहीं स्काटलैंड के राजकुमार जॉन ड्यूक भी इस पवित्र स्थल पर प्रभु यीशु की आराधना करने आ चुके हैं। छावनी क्षेत्र स्थित सेंट मेरीज महागिरजा मसीही आस्था का प्रमुख केंद्र है। वाराणसी धर्मप्रांत द्वारा संचालित सेंट मेरीज चर्च को भव्यता और सुंदरता 1970 में बिशप बने पैट्रिक डिसूजा ने अपने कार्यकाल में प्रदान की थी।
उन्होंने आठ अगस्त 1970 कार्यभार ग्रहण किया था। इससे पहले बनारस आगरा धर्मप्रांत द्वारा संचालित होता था। इस भव्य चर्च की आधारशिला 1840 में अंग्रेजी हुकूमत के दौरान रखी गई थी, लेकिन इसका लिखित इतिहास 1920 से मिलता है। पैट्रिक डिसूजा के प्रयास से चर्च को महागिरजा का दर्जा मिला। भव्यता प्रदान करने के लिए 1989 में इसका दोबारा निर्माण शुरू हुआ।
कुशल वास्तुविद की देखरेख में जब यह कैथेड्रल 1993 में बनकर तैयार हुआ तो सभी ने इसकी खूबसूरती की सराहना की। धर्मप्रांत के बिशप यूजीन जोसेफ ने बताया कि सेंट मेरीज महागिरजा की गिनती दुनिया के खूबसूरत गिरजाघरों में होती है। पर्यटक इस महागिरजा की खूबसूरती को देखते ही रह जाते हैं। बेसमेंट में बाइबल प्रदर्शनी इसका मुख्य आकर्षण है।
पवित्र बाइबल में वर्णित सृष्टि की रचना से लेकर मानव मुक्ति योजना व प्रभु यीशु मसीह के जन्म से लेकर पुनरुत्थान तक की घटनाएं सजीव झांकियों द्वारा प्रदर्शित हैं। सारी झांकियां अत्याधुनिक तकनीक की सहायता से विद्युत मशीनों द्वारा संचालित होती हैं।

प्रभु यीशु की शहादत की याद दिलाता लाल गिरजाघर

आजादी के पहले छावनी स्थित लाल गिरजाघर में अंग्रेज सैनिक आराधना करते थे। उस समय भी इस गिरजाघर का रंग लाल था। चर्च का लाल रंग ईसामसीह की शहादत का प्रतीक है, वहीं श्वेत रंग शांति का। इसी रंग ने गिरजाघर को खूबसूरत प्रदान की है। समय-समय पर यहां ङ्क्षहदी के साथ ही अंग्रेजी व उर्दू में आराधना होती है।
पादरी संजय दान के अनुसार ब्रिटिश पादरी एनवर्ट फैंटीमैन ने इस खूबसूरत चर्च की आधारशिला 1879 में रखी थी। पूर्व पादरी सैम जोशुआ सिंह बताते हैं कि 1887 में जब चर्च बना तो इसके पहले पादरी भारतीय मूल के ईश्वरी लाल बनाए गए। उन्होंने 1903 तक चर्च में सेवा दी। वहीं 1903 में आइ सआदतउल्लाह इसके दूसरे पादरी बने। चर्चेज ऑफ नार्थ इंडिया ने 1995 में सैम जोशुआ सिंह को गिरजाघर का 60वां पादरी बनाया था।

यादों का खूबसूरत गुलदस्ता सेंट पाल चर्च

सिगरा स्थित सेंट पाल चर्च लगभग 170 वर्ष पुराना है। ब्रिटिश काल का यह चर्च सैकड़ों वर्ष बाद भी अपने भीतर उस दौर का खूबसूरत इतिहास समेटे हुए है। सिगरा क्षेत्र में पहुंचते ही सवा सौ फीट की ऊंचाई वाले इस चर्च पर सहज ही निगाहें पड़ जाती हैं। अंग्रेज आर्किटेक्ट जान पाल ने क्रास का रूप देते हुए इस चर्च की नींव 1841 में रखी थी। उनके नाम पर इसका नाम सेंट पाल पड़ा। चर्च का निर्माण काफी करीने से किया गया। 150 किलो वजनी घंटा ब्रिटेन से मंगाया गया था तो वहीं टाइल्स इलाहाबाद से मंगाई गई थीं।

चर्च में तीन घड़ियां इंग्लैंड से मंगाकर लगाई गई थीं, ताकि चर्च आने वाले समय का ध्यान रखें। घडिय़ां अब भी चर्च की दीवार पर टंगी हुई हैं, लेकिन बदलते वक्त के साथ सूईयां थम गई हैं। कभी इन घडिय़ों का घंटा बजते ही सिगरा ही नहीं वहां से गुजरने वाला आम शहरी भी अपनी घड़ी इससे मिलाना नहीं भूलता था। बहुत से लोग इसे घंटाघर के नाम से भी जानते हैं।
बनारस आने वाले सैलानियों के लिए चर्च आज भी आकर्षण का केंद्र है। सिगरा चौराहे से ठीक पहले स्थित चर्च देश भर के ईसाइयों की आस्था का केंद्र है। रविवार के अलावा यहां क्रिसमस, नववर्ष, गुड फ्राई डे, ईस्टर, मसीही रोजा जैसे त्योहारों पर कलीसिया जुटती है। क्रिसमस के मौके पर चर्च की रौनक और भी बढ़ जाती है।

रामकटोरा चर्च में है लोगों की विशेष आस्था

लहुराबीर रोड स्थित रामकटोरा चर्च में पूर्वांचल के मसीही समाज के लोगों की विशेष आस्था है। यह चर्च प्रोटेस्टेंट क्रिश्चियन वर्ग का प्राचीन आराधना स्थल है। दस्तावेजों के अनुसार 1835 से पहले यह चर्च बन चुका था। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि 1835 में बाइबिल एंड मिशनरी फेलोशिप ट्रस्ट से रामकटोरा चर्च जुड़ा हुआ था। जिस चर्च की बाउंड्री आजादी से पहले रामकटोरा से संपूर्णानंद विवि और चेतगंज तक फैली थी, वही रामकटोरा का ऐतिहासिक चर्च आज बेहद संकीर्ण परिसर में सिमट कर रह गया। एक फरवरी 1958 को चर्च परिसर का पुननिर्माण कराया गया।

मानव सेवा को समर्पित बेथेलफुल गास्पल चर्च

महमूरगंज स्थित बेथेलफुल गास्पल चर्च प्रोटेस्टेंट ईसाईयों का प्रार्थना स्थल है। इसकी आधारशिला 1986 में डीरेका के इंजीनियर पास्टर अरविंद थामस ने रखी थी। यहां हिंदी के साथ ही उर्दू व अन्य भाषाओं में आराधना होती है। पिछले कई वर्षों से परोपकार व मानव सेवा के कार्यों में लगा हूं। इसके लिए सेंट बेथेलफुल गास्पल नाम से ट्रस्ट की स्थापना की। ट्रस्ट के नाम पर ही चर्च का नाम रखा गया। चर्च के पुरोहित और संस्थापक अध्यक्ष भी पास्टर थामस ही हैं। इस गिरजाघर की विशेषता है कि ये आराधना के साथ ही सर्व सेवा कार्य में लगा हुआ है। चर्च का अपना प्री-नर्सरी स्कूल गरीबों को मुफ्त शिक्षा दे रहा है।

खूबसूरत इतिहास समेटे है तेलियाबाग चर्च

देश में क्रिश्चियन इतिहास का दस्तावेज है तेलियाबाग सीएनआइ चर्च। इसकी आधारशिला 1856 में जॉन मुलेट ने रखी और इसके पहले पादरी भी बने। दस्तावेजों के अनुसार चर्च के लिए जमीन जमींदार बटुक दयाल सिंह से खरीदी गई थी। अन्य गिरजाघरों में ईसाईयों की बढ़ती आबादी के कारण प्रभु यीशु की आराधना के लिए एक और चर्च की जरूरत महसूस की गई, जिसके फलस्वरूप तेलियाबाग के इस चर्च की स्थापना हुई।
प्रोटेस्टेंट वर्ग के इस प्राचीन चर्च की इमारत अपने भीतर उस दौर का खूबसूरत इतिहास समेटे हुए है। ईसाई इतिहासकारों की मानें तो गोदौलिया के सेंट थॉमस चर्च व छावनी क्षेत्र के इंग्लिश चर्च के बाद तेलियाबाग का यह चर्च पूर्वांचल के सबसे पुराने गिरजाघरों में से एक है। 19 फरवरी 1930 में इस चर्च का प्रबंधन लंदन मिशनरी सोसाइटी ने अपने हाथों में ले लिया था, लेकिन तीन वर्ष बाद 1933 में मिशनरी ने मैथेडिश ट्रस्ट एसोसिएशन की स्थापना कर चर्च के देखरेख की जिम्मेदारी उसे सौंप दी। बाद में देश की आजादी के बाद 1970 में मसीही समुदाय की बैठक हुई, जिसमें चर्च आफ नार्थ इंडिया नामक संस्था बनी, जिससे सभी प्रोटेस्टेंट चर्च जोड़ दिए गए। तभी से इस चर्च का प्रबंधन सीएनआइ ही करती आ रही है।

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