त्यागी समाज के भारद्वाज (बिकवान) गौत्र में करवाचौथ न मनाने की परंपरा एक ऐतिहासिक घटना और सांस्कृतिक संदर्भ – चौधरी संजीव त्यागी कुतुबपुर

यूपी के जनपद मुज़फ्फरनगर के भारद्वाज (बिकवान) गौत्र के त्यागी समाज के आठ गांव—कुतुबपुर, बरला, खुड्डा, छपार, खाईखेड़ी, घुमाती, भैंसानी, और फलौदा—में करवाचौथ का त्योहार न मनाने की परंपरा प्रचलित है। इस परंपरा के पीछे एक अत्यंत भावुक और ऐतिहासिक घटना जुड़ी हुई है, जो इस समाज की स्मृतियों में गहराई से बसी है। कहा जाता है कि समाज की बड़ी दादी मां करवाचौथ के दिन विधवा हो गई थीं, और पति के वियोग में उन्होंने सुहागन का श्रृंगार कर अग्नि में सती हो जाने का निर्णय लिया।

इस घटना का न केवल परिवार पर बल्कि पूरे गौत्र और गांवों पर गहरा प्रभाव पड़ा, जिसके कारण आज भी इन गांवों में करवाचौथ का उत्सव नहीं मनाया जाता। इस लेख में हम इस घटना के ऐतिहासिक महत्व, भावनात्मक प्रभाव, और सांस्कृतिक संदर्भों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
1. घटना का ऐतिहासिक संदर्भ: करवाचौथ और सती प्रथा

करवाचौथ का त्योहार भारतीय संस्कृति में सुहागन स्त्रियों द्वारा पति की लंबी आयु और सुखमय जीवन के लिए रखा जाता है। महिलाएँ पूरे दिन निर्जला व्रत करती हैं और रात्रि में चंद्रमा को अर्घ्य देकर व्रत का समापन करती हैं। इस पवित्र व्रत का उद्देश्य दांपत्य जीवन में प्रेम, समर्पण और सौभाग्य को प्रकट करना है।

लेकिन बिकवानो भारद्वाज गौत्र की बड़ी दादी मां के जीवन में करवाचौथ का दिन दुर्भाग्य और पीड़ा का प्रतीक बन गया। उसी दिन उनके पति का निधन हो गया, और उन्होंने समाज की परंपराओं का पालन करते हुए सुहागन का श्रृंगार कर अग्नि में सती हो जाने का कठोर निर्णय लिया। यह घटना न केवल व्यक्तिगत पीड़ा की पराकाष्ठा थी बल्कि एक ऐसी सामाजिक घटना बन गई, जिसका प्रभाव पीढ़ियों तक महसूस किया गया है

2. करवाचौथ न मनाने की परंपरा का जन्म

इस घटना के बाद, हमारे गौत्र के बुजुर्गों ने करवाचौथ का त्योहार न मनाने का निर्णय लिया। इसका कारण यह था कि जिस दिन को अन्य स्त्रियाँ अपने पति के स्वस्थ और दीर्घ जीवन के लिए उत्सव के रूप में मनाती थीं, वह दिन हमारे परिवार और गौत्र के लिए शोक का प्रतीक बन गया था।

इस प्रकार, दुखद स्मृति के सम्मान में और उस पीड़ा को पुनः न याद करने के उद्देश्य से, करवाचौथ का व्रत और उत्सव इन आठ गांवों में छोड़ दिया गया। यह परंपरा आज भी निभाई जाती है और यह बताती है कि समाज ने संवेदनाओं और स्मृतियों को गहराई से आत्मसात किया है।
3. मायके में करवाचौथ का उल्लास
हालाँकि, यह प्रथा इन गांवों की बेटियों के लिए लागू नहीं है। जब ये बेटियाँ शादी के बाद मायके लौटती हैं, तो वे करवाचौथ को बड़े उत्साह के साथ मनाती हैं। बेटी के मायके में यह अवसर उत्सव और मेल-मिलाप का प्रतीक होता है, जहाँ परिवारजन और परिचितों को भोजन पर आमंत्रित किया जाता है। यह आयोजन न केवल बेटियों की खुशियों का सम्मान करता है, बल्कि परिवार के आपसी प्रेम और रिश्तों की प्रगाढ़ता को भी प्रकट करता है।
इससे यह संदेश मिलता है कि त्याग और संवेदनाओं के बावजूद, समाज ने बेटियों की भावनाओं का सम्मान करते हुए उन्हें त्योहार मनाने की स्वतंत्रता दी है। यह संतुलन बताता है कि परंपराओं का पालन भी किया जाता है, लेकिन बदलते समय के साथ भावनात्मक संतुलन भी बनाए रखा जाता है।
4. परंपरा और समाज के मूल्यों का संदेश
त्यागी समाज में यह घटना केवल एक व्यक्तिगत घटना तक सीमित नहीं रही, बल्कि एक सांस्कृतिक प्रतीक बन गई। यह घटना बताती है कि त्यागी समाज अपने पूर्वजों की स्मृतियों और उनके द्वारा किए गए कर्तव्यों को अत्यंत आदर के साथ निभाता है। गौत्र की अस्मिता और संवेदनाएँ इस परंपरा का आधार बनती हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ती हैं।
यह परंपरा यह भी दर्शाती है कि समाज में दुख और शोक को भी उतनी ही श्रद्धा से संजोया जाता है, जितना कि उत्सवों को। यह संतुलन भारतीय समाज के गहरे मूल्यों को प्रकट करता है, जहाँ त्याग, प्रेम और सम्मान जीवन के हर पहलू में महत्व रखते हैं।
त्यागी समाज के भारद्वाज (बिकवान) गौत्र में करवाचौथ न मनाने की परंपरा उस दुखद घटना से जुड़ी है, जब हमारे परिवार की बड़ी दादी मां ने पति के वियोग में सती हो जाने का कठोर निर्णय लिया था। इस घटना ने पूरे गौत्र और गांवों पर गहरा प्रभाव छोड़ा, जिसके परिणामस्वरूप करवाचौथ का उत्सव आज भी इन गांवों में नहीं मनाया जाता।

हालाँकि, इस परंपरा के बीच भी समाज ने बेटियों की भावनाओं और खुशियों का सम्मान किया है, जो मायके में करवाचौथ मनाकर अपने रिश्तों में उल्लास और प्रेम का संचार करती हैं। यह परंपरा त्यागी समाज की संवेदनशीलता और संतुलित दृष्टिकोण को उजागर करती है, जहाँ परंपराओं और भावनाओं के बीच तालमेल बिठाया जाता है।

इस प्रकार, करवाचौथ न मनाने की यह परंपरा केवल एक अनुष्ठान के त्याग से अधिक है; यह संवेदनाओं, स्मृतियों, और समाज के मूल्यों का प्रतीक है, जो त्यागी समाज को विशेष और आदर्श बनाता है।

चौधरी संजीव त्यागी कुतुबपुर

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