नीरज तोमर
मेरठ

काफी फ़िल्मी है यह सुनना कि प्यार इंसान को निकम्मा कर देता है। फ़िल्मों में कई परिस्थितियों को न्यायोचित ठहराते हुए इस डायलॉग को बोला भी जाता है। देवदास बने आशिक को इस डायलॉग के साथ देवदास बने रहने की अनुमति मिल जाती है। फ़र्श के आगोश में शराब की बोतल लिए यूँ ही महीनों पड़े रहना, पपीते-सा मुँह का लटकते-लटकते सूखकर केला हो जाना, सड़ती काया का जीवित और मृत के मध्य का भेद समाप्त कर देना और कर्म न करने का वैधानिक कारण मिल जाना। और भला क्या चाहिए निकम्मेपन के लिए। प्यार कुछ ऐसे ही निकम्मों की फे़हरिस्त तैयार करता है। और आजकल तो ऐसा लगता है कि यह निकम्मापन कुछ फैशन सा हो चला है।
अनुज की यह हालत देख कई बार मन करता कि एक पुराने जमाने के टीचर की तरह व्यवहार करते हुए लंबी से ज्ञानदायनी (डंडा) ले, पहले इसको होश में लाऊँ और फिर आगे पूछँ कि इतने से काम चलेगा या थोड़ा और पिलाऊँ? वह भी जानता था कि जिस दिन मुझे वह देवदास वाली अवस्था में मिल जाएगा, निश्चित रूप से उसका निकम्मापन घबरा जायेगा। इसलिए हर बार मुझसे बचकर भागने में सफल हो जाता था। मैं कई बार उसके दोस्तों से पूछती कि मेरे आते ही इसके प्यार के भूत को होश कैसे आ जाता है? वे बस हँसकर इतना कहते कि दीदी खौफ़ है आपका।
आखि़र एक दिन लुकाछिपी का यह खेल समाप्त हो ही गया। और वह भागने के असफ़ल प्रयास में पकड़ा गया। ना सिर ऊपर उठाता और न नज़रे मिलाता। कभी गुस्से से चेहरा तिलमिलाता, तो कभी रूँआ सा हो जाता। मैं चुप बैठी उसके सभी भावों के समाप्त होना की प्रतीक्षा करती रही। काफी देर बाद हारकर उसने ही हमारे बीच के उस सन्नाटे को झनझनाया।
क्य…क्या! चाहती क्या हो आप?
तुम्हें क्या लगता है?
आप क्यों मेरी ज़िंदगी में दख़लंदाज़ी कर रही हो?
ये तो तुम्हारे सोचने का प्रश्न है कि मैं ये सब क्यों कर रही हूँ और कौन हूँ मैं?
जानता हूँ दी मैं। पर क्या करूँ? नहीं हो पा रहा है।
क्या नहीं हो पा रहा है?
मैं भूल नहीं पा रहा हूँ उसे।
तुमने याद ही क्यों किया था उसे, जब वो तुम्हारी थी ही नहीं?
वो मेरी ही तो थी, पर अभी बहक गई है।
जो बहक जाए, वो प्यार कैसा?
दी!! मैं जानता हूँ कि मैं आपसे बहस में नहीं जीत सकता।
ये बहस नहीं है अनुज। ये लॉजिक है, जिससे तुम भाग रहे हो।
पर प्यार में लॉजिक नहीं होता दी।
होता है। बिलकुल होता है। खासकर तब जब प्यार दो तरफ़ा न हो।
ये आपको लगता है दी।
ये सबको पता है और तुम्हें भी पर तुम स्वीकार नहीं करना चाहते। चलो शुरू से शुरू करते हैं। मैं तुम्हें बचपन से एक ही बात समझाती आ रही हूँ कि कच्ची उम्र का प्यार, प्यार नहीं आसक्ति होता है। जो समय के साथ-साथ और जिम्मेदारियों के साथ-साथ समाप्त होता चला जाता है। तुम्हें क्या लगता है तुम उसके वियोग में नौकरी पर नहीं जाओगे और वो दौड़ी-दौड़ी आकर तुम्हारी नौकरी और तुम्हें बचाएगी? नहीं अनुज! तुम धोखे में हो। यदि तुम्हारे पास नौकरी नहीं होगी, तो गर्लफ्रेंड तो दूर की बात, यदि हम तुम्हारी शादी भी कर दे, तो बीवी भी नहीं रूकेगी। जानते हो क्यों? क्योंकि प्यार पेट नहीं भरता। जब पेट में आग लगती है, तो बीवी रोटी माँगती है, बिस्तर नहीं। यही सच है। तुम जितने सफ़ल होंगे, उतना ही प्यार अगाढ होगा। मैं ये नहीं कहती कि प्यार की बुनियाद सिर्फ पैसा है, पर ये भी सच है कि पैसे से पूरी होती जरूरतें, प्यार बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये जो दसवीं-बारहवीं के प्यार होते हैं, तुम मुझे ये बताओ, ये बच्चे अपना पेट भरने के लिए तो माता-पिता पर आस्तिक होते हैं, तो गर्लफ्रेंड को भी क्या माता-पिता के पैसों के भरोसे बनाते हैं? इतनी सी उम्र से घर से क्या सोचकर भागते हैं कि ये एक सुखी-समृद्ध गृहस्थी बसाएंगे? कैसे भला? अपनी स्कूल की फीस तक तो ये भर नहीं सकते, तो बिना गृहस्थ जीवन के दायित्वों को जाने फ़िल्मी सपने क्यों बुनते हैं? और फिर इनमें से कई दोनों परिवारों का तमाशा बनाकर अपना-सा मुँह ले घर लौटकर भी आते हैं। यदि इन बेवकूफी भरे प्यार को छोड़कर अपनी पढ़ाई करें और सफ़ल होकर अपने मानसिक स्तर के अनुसार परिपक्व उम्र में प्यार या शादी का इरादा बनाएं, तो सोचो एक सफ़ल गृहस्थी की कितनी मजबूत बुनियाद बनने की संभावना है। शादी एक जुआ है। विचारों का तालमेल किसी भी अवस्था में बनता-बिगड़ सकता है। परन्तु कच्ची उम्र में तो बनने की संभावना नगण्य है ना!
तो दी मैं तो नौकरी कर रहा हूँ आप मुझे कच्ची उम्र का प्यार क्यों समझा रही हो?
क्योंकि तुम उसी कच्ची उम्र से हर कक्षा में प्यार कर रहे हो। तुम प्यार ज़बरदस्ती करते हो। तुम इस बात हो नहीं समझ रहे हो कि प्यार किया नहीं जाता, हो जाता है। और जो प्यार हो जाता है, वही प्यार तुमसे उस लड़की को भी हो जाए ये ज़रूरी नहीं है। तुम उस लड़की को खुद से प्यार करने के लिए बाध्य नहीं कर सकते। तुम प्यार के सही मायने को समझो। प्यार एक समर्पण है उसके लिए, जिसके लिए तुम्हारे अंदर अदम्य भावनाएं उद्वेलित हो रही हैं। तुम उस लड़की में तुम्हारी जैसी ही भावनाओं को जबरन पैदा करना चाहो, तो याद रखना वह क्षणिक छद्म प्रेम होगा। मसलन स्वार्थ भावनाओं से परिपूर्ण। और उस प्यार से खाए धोखे के लिए तुम स्वतः जिम्मेदार होंगे। तुम उससे प्यार करो, ये तुम्हारा अधिकार है। पर वो तुमसे प्यार न करे, ये उसका भी अधिकार और निर्णय है। तुम दोनों को एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए। क्योंकि प्यार में एक-दूसरे के मान का तथा भावनाओं के सम्मान का सर्वोच्च स्थान होता है। यदि तुम एक-दूसरे का सम्मान नहीं कर सकते, तो कदाचित प्यार नहीं कर सकते। तुम उससे प्यार करते हो, तो उस प्यार के कारण उसकी खुशियाँ तुम्हारी जिम्मेदारी हैं। पर वो यदि तुमसे प्यार नहीं करती तो तुम्हारी खुशियों का ध्यान रखना उसकी पर्सनल च्वाइस है, पर जिम्मेदारी नहीं।
तब तो दी ये बहुत मुश्किल है कि कभी ऐसा हो कि जिससे मुझे प्यार हो जाए, उसे भी मुझसे प्यार हो जाए। क्योंकि आपकी प्यार की थ्योरी इमोशनल कम, प्रैक्टिकल ज़्यादा है।
हा-हा-हा………. तुम्हें ये प्रैक्टिकल भले लग रही हो, पर सच भी यही है। और जहाँ तक बात दोतरफ़ा प्यार पाने की है, तो जिस दिन प्यार को सर्च इंजन पर ढूँढ़ना छोड़ अपने करियर में आगे बढ़ने की तैयारी शुरू कर दोगे, तो निश्चित रूप से अपने सच्चे प्यार की ओर तुम्हारे कदम अपने आप बढ़ते चले जाएंगे। क्योंकि प्यार तुम्हारा करियर में तुमसे ऊपर बैठा हो सकता है, और तुम यहाँ देवदासगिरी में अपना समय बर्बाद कर रहे हो। समझे?
नहीं बिलकुल नहीं।
देखो! हमारी भारतीय संस्कृति में एक कहावत है कि जोड़ियाँ ऊपर से बनकर आती हैं। इसे जोड़िया-संजोग भी कहते हैं। तुम अपने जीवन में अपने कर्मों के साथ सफ़लता की ओर आगे बढ़ते जाओ। तुम्हें तुम्हारा हमसफ़र मिल जाएगा। परन्तु यूँ जिं़दगी में ठहरकर न करियर मिलेगा और न हमसफ़र। क्योंकि वो पहले ही तुमसे अधिक तरक्की कर, ऊपर बैठी होगी। तभी तो, तुम्हारी जोड़ी तरक्की कर ऊपर बनेगी। (व्यंग्यात्मक लहज़े में)।
बहुत प्रैक्टिकल हो दी आप। पर आपका प्रैक्टिकल प्यार भी समझ आ गया है। देवदासगिरी बंद दीदी। प्यार उसके लिए हमेशा रहेगा, पर उसकी भावनाओं के सम्मान के साथ।

 

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