जनवरी की ठिठुती सर्द शामों में, वो बेचता था मूंगफली नपे तुले दामों में…
झुर्रीदार चेहरे पर छोटी दो निर्भाव आंखें, जर्जर शरीर, बोझिल मन और सिकुड़ चुकी खाल वाला वो बूढ़ा आदमी बेचता था मूंगफली नपे तुले दामों में…
बीचो-बीच जिसके रखी होती थी दहकती सी हंडिया, पर उससे ना गरम हो पाती थी उसकी बूढ़ी हड्डियां!
तन ढक सके जो कपड़ा नहीं था इतना, पैबंद लगी पुरानी धोती करती दूर जाड़ा कितना?
जब सर्द मौसम का गहराता साया वो बूढ़ा जीव खुद में ही खुद को समेटता जाता!
लोग आते और खरीदते मूंगफली पर किसी की नजर उस कंपकंपाते शरीर पर नहीं पड़ी…बर्फीली हवाएं जब छू लेती थी अस्थियों को तब वो बेबस घुटनों को छाती से लगा उन पर सिर टिका देता और शायद सोचता था मन में कि “हे प्रभु क्या मैं इन पशुओं से भी हूं गया गुजरा, तूने इन्हें भी जाड़े से बचने के लिए बालों का कंबल है दिया!”
एक छोटी सी लड़की रोज थी आती, बूढ़े से मूंगफली खरीद ले जाती। हंसती खिलखिलाती वो आती और कुछ पलों के लिए ही सही बूढ़ी आंखों में जीवन भर जाती।
उस दिन भी वो नन्हीं परी आई थी,हाथों में अपने गर्म कंबल लाई थी…चाहती थी बचाना बूढ़े को ठंड से, खरीदा था कंबल अपने जेब खर्च से!
इठलाती हुई बोली “बाबा तुम्हारे लिए लाई हूं कंबल!” उढ़ाने लगी फिर ठिठकी एक पल…. नहीं थी कोई हलचल बूढ़े के ठंडे शरीर में,वो मर चुका था! कंबल जो बचा सकता था उसका जीवन… बन गया था वही उसका कफ़न।
© संयुक्ता त्यागी (मेरठ)