बात एक ऐसी शख्सियत की जिनकी कलम से दनादन निकलने वाले धारदार शब्दों को जब एक छोटा सा कागज का पन्ना गिरफ्तार करता है तो वह भी सोचने को बाध्य हो जाता है कि इनको वनवास दूं या जनवास…!
ऐसा इसलिए क्योंकि आज हम आधुनिक युग में जी रहे हैं… जी हां, चौंकने वाली कोई बात नहीं है आस- पास देखा जाय तो हर कोई लेखक है ! परन्तु सबकी लेखनी को कहां जनवास मिलता है!
साहित्य जगत में एक ऐसा नाम जो समाज के अनकहे, अनसुने, तथ्यों, किस्सों, कहानियों को जीवंत रुप में उकेरने की अद्भुत, अद्वीतीय और अतुलनीय कला को बखूबी जानते हैं, जिसके लिए वो भिन्न-भिन्न किरदारों का सहारा लिया करते हैं जो कहीं न कहीं हमारे आस पास ही मौजूद भी होते हैं तथा समाज के ऐसे मार्मिक सवालों को भी उठाते नजर आते हैं जो समाज के मुंह पर तमाचा मारते हैं, तो वहीं हास्य व्यंग की अनूपम शब्द शैली उसे साफ्ट बनाकर परोसती नज़र आती है। इसी कड़ी में हम देखते हैं कि अब तक उनकी सतत् चलायमान कलम से 13 कहानी संग्रह,12 उपन्यास और 29 चित्रकथाएं, 1100 कहानियां व व्यंग प्रकाशित हो चुके हैं।
मैं बात कर रही हूं हिन्दी साहित्य जगत के युग पुरोधा “लंका का लोकतंत्र” के लेखक संजीव जायसवाल “संजय” जी की !!!
यह उनका दूसरा व्यंग्य संग्रह है,जो इंडिया नेटबुक्स से प्रकाशित होकर हमारे समक्ष पेश हुआ है। इसमें छोटी -छोटी पैंसठ व्यंग्य रचनाएं हैं। जिसमें डेमोक्रेसी के शेर, मोबाइल पर फिल्म, गोली खाओ- गरीबी भगाओ, महंगा रोये एक बार, गुंडई का मौलिक अधिकार, करोड़पतियों की बहार, बलात्कार का सुख, शौचालय घोटाला, डंडे वहीं झंडे बदल गये, देश तो टूटता फूटता रहता है, आश्रम शरणम् गच्छामि,तेरा काला धन – मेरा काला धन, मुझसे भी रिश्वत ले लो, बलात्कारियों तुम संघर्ष करो, खुशहाली का एक्सटेंशन,आस्था की वैज्ञानिकता, मौलिक अधिकार व स्वयं लंका का लोकतंत्र शामिल है। यही कारण है कि साहित्य जगत में आज उनका नाम स्कूल में बाल कहानियां पढ़ने वाले बच्चों से लेकर दफ्तर में नौकरी पेशा करने वाले साहित्य प्रेमियों तक शुमार है। साहित्य की इस यात्रा को अनवरत बढ़ाने हेतु उप्र हिंदी संस्थान का दो लाख रुपयों का बाल साहित्य भारती और भारत सरकार के भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सम्मान भी उनके खाते में जमा हैं! संजीव जी की किताबों के अनेक संस्करण अलग- अलग देशी व विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी होते रहे हैं। इतना ही नहीं अनेक रचनाएं पाठ्यक्रमों में भी आज शामिल हैं। ह्यूमर और विट का प्रयोग उचित समय व उचित जगह पर करना सबसे बड़ी उपलब्धि उनकी कलम की मुझे नजर आती है। वहीं दूसरी ओर स्वयं लंका का लोकतंत्र’ में रावण के दस मुखों के विद्रोह की एक अनूठी कथा है। जो दशानन के निराले ठाठ बताती हुई उनके दसों मुखों के अट्टहास की कल्पना से तीनों लोकों को गुंजायमान करने की बात करती है। जहां कुंभकर्ण कहता है कि दस में से छह मुख आपके समर्थन में होंगे तो ही लोकतंत्र कायम रह सकता है। ‘माल सबको चाहिए’ वाक्य वाकई बहुत कुछ ईशारा वर्तमान समाज एवं राजनीति की ओर भी करता है कि जिसको माल खिला रहे हैं वह तो आपका समर्थन करेगा ही और जिसे खाने को नहीं मिल रहा है वह माल पाने की अभिलाषा में आपकी जय जयकार करेगा। देखिएगा बिन मांगे सबका समर्थन आपको मिलेगा और आप पहले से भी अधिक शक्तिशाली होकर उभरंगे। वर्तमान व्यवस्था का भी अद्भुत वर्णन यहां पर मिलता है।
अपुन के देश का राष्ट्रीय चिह्न क्या? अशोक की लाट! उसमें कितने शेर? पूरे चार। उनके बीच कभी लड़ाई झगड़ा होते देखा? नहीं देखा! काहे को नहीं देखा! अरे चारों चुपचाप बैठे हैं, एक -दूजे की ओर देखते तक नहीं! झगड़ा किस बात का होगा ये! बिल्कुल सही जवाब !मगर अपनी डेमोक्रेसी के चारों शेर जब तक एक- दूसरे की मुशीबत में टांग न अडा़ लें कलेजे को ठंडक नहीं पड़ती ! भय्या मेरी मान लो दिल की बजाय दिमाग से काम लेना सीखो! आज तो यह चारों शेर विस्ता प्रोजेक्ट की छत पर भी नजर आ रहे हैं परन्तु संजीव जी की इस कहानी को एक बार मोदी जी को जरुर पढ़नी चाहिए।
मंहगाई डायन: छोटी -छोटी हीरोइनें कमर मटका कर करोड़ों रुपए ऐंठ ले उस पर भी किसी को कोई दिक्कत नहीं है। कोई बताए उनकी भला लागत क्या आती है? बदन पर जो थोड़े बहुत कपड़े पहने होती हैं न वह भी प्रोड्यूसर के होते हैं साहब!!! उधर दिल्ली के दलाल भी बिना किसी लागत के अरबों पीट रहे हैं। उस पर भी किसी को कोई एतराज नहीं है। सारा नजला बेचारी दवा कंपनियों का ही है। अरे भैया हजार झंझट है इस धंधे में, खाली दवाइयों की लागत को मत देखिए । क्योंकि लागत खाली जड़ी -बूटी -खनिज -लवण कूटने से थोड़े ही आती है।—– अपने देश में कानून है कि दवा कंपनियां किसी प्रोडक्ट पर लागत से सौ % से अधिक मुनाफा वसूल नहीं कर सकती!!!!! मगर खबर उड़ी है कि कुछ कंपनियां ग्यारह सौ % तक मुनाफा वसूल रही हैं। मुनाफे का लागत से कोई संबंध ही नहीं है। एक अदना सा लेखक पांच पैसे की स्याही खर्च कर संपादक से ₹500 की भारी-भरकम रकम झटक लेता है उस पर तो किसी को कोई आपत्ति नहीं है !!
ऐसे -ऐसे व्यंग हर कहानी में हैं कि समीक्षा करते करते पूरी किताब ही स्वयं समीक्षा न बन जाए।
अकलमंद की गाड़ियों के डंडे वही है मगर झंडे बदल गए हैं । बाकी सब बदस्तूर वैसा ही जारी है। चौराहे पर लाल बत्ती को धता बताने की परंपरा, हूटर बजाने का जन्म सिद्ध अधिकार, साइड न देने वालों को थपडियाने की सुविधा, नो पार्किंग जोन को ईजी- पार्किंग जोन में तब्दील करने की महारथ, वन वे को टू वे में बदल देने की मौलिकता, नाके पर टोल की बजाय धौल देने का रिवाज़! सब कुछ पूर्ववत उपलब्ध है।
बदलते मौसम के साथ मात्र झंडे को बदलने से आपका VIP स्टेटस ऑटोमेटिकली बहाल हो जाता है । आम आदमी तो आपको देख ऐसे दुबक जायेगा जैसे शेर को देख कर बकरी। इस बीस रुपल्ली के झंडे की हनक तिरंगे से किसी मामले में कम नहीं है । अगर सारी सुविधाओं को जोड़ा जाए तो यह इक्कीस ही बैठेगा। इसलिए जिनकी दो पहिया खरीदने की भी हैसियत नहीं वह भी कबाड़ी बाजार से सेकंड हैंड गाड़ी खरीदकर झंडा लगा फर्राटा मारते रहते हैं। हां कुछ अज्ञानी यह प्रश्न उठाते रहते हैं कि लोकतंत्र में डंडा ज्यादा महत्वपूर्ण है या झंडा…..!
अगर डंडा न हो तो झंडे की हैसियत रुमाल से ज्यादा नहीं रह जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि संजय जी डंडे और झंडे पर शोध करके लिखने बैठे थे वह दिन ऐसा रहा होगा जब उन्होंने बहुत सारे डंडे व झंडे अपने मस्तिष्क पटल के प्रांगण पर फहराये होंगे।
बुरा देखो बुरा सुनो: जो सत्य,अहिंसा के पुजारक फिरंगी विंस्टन चर्चिल के शब्दों में हाड़ मांस का पुतला बापू जी का जीवंत खाका हमारी स्मृति में खींच देती है।
बेजुबान वो तीनों प्यारे मासूमियत भरी अनकही सी बातों को इशारों में बयां करने को आतुर से दिखाई पड़े….!
पहला मत दो बापू मत दो …..
दूसरा मत दे दो बापू मत दे दो……
स्नेह से बापू, ये तुमने क्या उल्टा -पुल्टा लगा रखा है, एक कहता है मत दो दूसरा कहता है दे दो इतने में तीसरा मायूसी से बिलख कर बोलता है, बापू आप समझे नहीं….! आपने हमें सिखलाया था कि बुरा मत देखो! बुरा मत सुनो! और बुरा मत बोलो!
तो, क्या मैंने कोई गलत सिखा दी थी… बापू गहरी सांस भरकर एक दर्द भरे स्वर में बोलते हैं, वैसे भी आजकल किसी को मेरी कोई सीख याद नहीं रही अब तुम लोग भी मेरी सीख को नकारने आ गए…?
नहीं बापू ऐसा नहीं है, हम लोग तो आपकी आज्ञा का पालन कर रहे थे, लेकिन एक दिन कुछ लोग आए वह आपके चरखे का बुना हुआ वस्त्र पहने थे और साक्षात देवदूत लग रहे थे। उन्होंने कहा कि आप अपना ‘मत हमें दे दो’ पहले वानर हिचकियां भरते हुए कहने लगा इतने में दूसरे ने भी रुंधे स्वर में बताया कि उन्होंने समझाया ‘मतदान’ सबसे बड़ा दान होता है! इससे ‘देश का विकास’ होता है! देश का विकास तो आपका भी सपना था, इसलिए हम लोग उनके बहकावे में आ गए….!
बापू मैंने इन दोनों को बहुत समझाया कि अपना ‘मत’ मत दान करो लेकिन यह नहीं माने इन्होंने तो अपने मत के साथ-साथ हमारे मत का भी दान करवा दिया। मत चले जाने के बाद अब हमारे पास केवल एक वक्तव्य ‘बुरा देखो’ बुरा सुनो और बुरा ही बोलो बचा है। 71 साल बीत गए हैं बुरा देखते, बुरा सुनते और बुरा बोलते हमारी हालत खराब हो गई है। लेकिन अब और बर्दाश्त नहीं होता है । हमें हमारा मत वापस दिलवा दीजिए। तीसरे बंदर के आंखों में आंसू थे। जिसे पढ़ने भर से एक रोता बिलखता वर्तमान व्यवस्थाओं व भविष्य पर खेद प्रकट करता बेजुबान जानवर किसी चिंतनशील विशेषज्ञ की भांति दिखाई पड़ता है। वहीं जब बापू की प्रतिक्रिया को हम पढ़ते हैं
हे राम! जहां मैंने रामराज्य की कल्पना की थी वहां मनुष्य ‘मतदान’ के लिए सारी मर्यादा भंग कर देता है यह तो मैंने सुना था लेकिन वह मेरे प्यारे बेजुबान साथियों का भी यह हाल करेंगे यह मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था बाबू चित्कारते हुए बोलते हैं।
इतना ही नहीं ऐसी स्थितियों को देखते हुए स्वयं भगवान श्री राम के प्रत्यक्ष दर्शन वहां होते हैं। जो अपनी निरपेक्षता की मर्यादा की बात करते हैं, और उनको नवीन तकनीक से समाधान सुझाते हैं।
गांधी नेहरू का पत्राचार:इस कहानी को पढ़ना अपने आप में एक अलग अनुभव था कुछ मुस्कान, कुछ अफसोस और वहीं कुछ सत्य से परिचित होने का सुनहरा अवसर मिला…. वर्तमान राजनेताओं के आचार व्यवहार और उनके आचार व्यवहार को देखकर बहुत कुछ गम्भीर भी कर गया। जब बापू अपने पत्र में कहते हैं कि तुमने अपने नोटों पर मेरी फोटो छपवाकर मेरा जीना तो छोड़ो मरना भी हराम कर दिया। और इसलिए वह निवेदन करते हैं कि नोट से फोटो और घर का नाम (राजघाट) बदल दिया जाय। परन्तु नेहरू इस कार्य को करने में अपनी असमर्थता जताते हुए स्वयं को जिम्मेदारी से विलग कर देते हैं। बापूजी इसे उपहास बताकर बुढ़ापे में और अधिक दम न रहने की ओर इशारा करते हैं, तो वहीं चाचा नेहरू जी बताते हैं कि वर्तमान में यकीं मानिए आपके फोटो से ही देश चल रहा है इसके बगैर तो कहीं पत्ता भी नहीं हिलता है। इस जबाव को पढ़कर बापू बेहोश हो जाते हैं ।
साथ ही बायनोमुखी योग्यता, क़ानून ये हाथ मुझे दे दो, जींस पैंट ऊवाच, जनाब पाकिस्तान अली संग्रह की सबसे बेहतरीन रचनाओं में से एक हैं। अतः इस प्रकार जब हम एक- एक व्यंग को पढ़ते हुए अन्तिम पृष्ठ पर पहुंचते हैं तो मन में और अधिक पढने की हार्दिक इच्छा, व्यंग संग्रह को एक झलक फिर से निहारने की जिज्ञासा घर करने लगती है। मैं चाहुंगी कि सभी साहित्य प्रेमियों को एक बार संजीव जी को जरुर पढ़ना चाहिए। सबसे अच्छी बात यह है कि इनकी रचनाएं अलग अलग भाषाओं में उपलब्ध हैं। संजीव जायसवाल’संजय’जी की कलम केवल मनोरंजन ही नहीं कराती, तनाव से मुक्ति ही नहीं दिलाती बल्कि बहुत कुछ सीखाती भी है। वह वर्तमान भूत भविष्य के प्रति हमें सचेत करती है तो वहीं दूसरी ओर शब्द विन्यास व भावाभिव्यक्ति की नई तकनीक से भी परिचित कराती है। आप अनवरत लिखते रहें।

✍️सम्भावना पन्त

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