एक पेड़ के भी कई दुख होते हैं!
दुख कि भोर में दाना लेने गई चिरैया
साँझ के आखिरी पहर भी न लौटी
कि घोंसले में बच्चे भूख से मुंह फाड़े बैठे
चींची करते हलक सुखा रहे।

दुख कि माँ के बीतने की खबर सुन
रेल की बाट देखता मुसाफिर
उसकी छाँव में दो घड़ी सुस्ताने क्या बैठा
कि अपने गाँव जाती रेल का
टाईम भूल सोता रह गया।

दुख कि रात के अँधड़ में
उससे बिछड़े सारे बच्चे-पत्ते
सुबह जमादार ने बड़ी बेरहमी से सकेर
कचरे संग ढेरी बना आग के हवाले कर डाले।

दुख कि पिछले बरस कलम बनी
उसकी सबसे मजबूत टहनी
ऐश्वर्य में डूबी आज लिख नहीं पाती
बाकि साथिन टहनियों का दुख ।

दुख कि परके साल आस-उम्मीद रख
मन्नतों रंगी, तने को बाँधी मौलियाँ खोलने
कोई तो आ जाता कि सूखते तने का कलेजा
हरा हो जाता और जड़ों को साँस आ पाती ।

पेड़ को भी पेड़ होकर भोगे
अपने दुखों की फेहरिस्त बनाने
एक दिन खुद को कलम करना ही पड़ता है

✒️ अचल राज पांडे

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