हमारे देश की संस्कृति है, ‘‘सबसे पहले स्त्री सम्मान।’’ देश की बेटियों से आग्रह है कि मैडल से पहले आत्मसम्मान को रखना। यदि देश बेटियों के आत्मसम्मान की रक्षा नहीं कर सकता, तो देश इनके द्वारा लाये गए मैडल के लायक भी नहीं है।
फेसबुक पर यह पोस्ट लिखते ही विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाओं ने फेसबुक पर लाइन लगा दी। पर लोगों में बेचैनी इस कदर होगी कि वे फ़ोन पर चर्चा करने के इच्छुक हो जाएंगे, यह अप्रत्याशित था। इससे भी कहीं अधिक विचित्र थे उनके निरर्थक तर्क। उनका प्रश्न था कि ये पहलवान इतने लंबे समय से चुप क्यों थे। इस प्रश्न के जवाब से अधिक महत्त्वपूर्ण मुझे यह जानना लगा कि सभ्य कहे जाने वाले समाज के इन सामाजिक एवं पारिवारिक लोगों के मस्तिष्क में ये प्रश्न आया भी क्यों? क्या वास्तव में इस प्रश्न के कोई मायने हैं? हमारी बेटियाँ यदि अपने साथ हुए किसी भी गलत व्यवहार की हमसे शिकायत करती हैं, तो पहले हम उनकी सहनशीलता की चीरफाड़ करेंगे या उन्हें यह भरोसा देंगे कि तुम्हारे साथ हम कुछ और गलत नहीं होने देंगे। क्या हमें उन्हें विश्वास में लेते हुए यह नहीं कहना चाहिए कि बेटी तुम्हें इतना सहन करने की आवश्यकता ही नहीं थी। पहले ही दिन हमें बताना था। हम सदा तुम्हारे साथ हैं।
लेकिन ये भरोसा तो हम कभी अपनी बेटियों को दे ही नहीं पाए। तभी तो वे सहती गई, सहती गई और सहती गई। और यकीन है मुझे जो बर्बरता उनके साथ जंतर-मंतर पर हुई, इसके बाद तो शायद ही कोई बेटी अपने साथ हुए दुर्व्यवहार के लिए न्याय मांगने की हिम्मत कर पाएगी। शर्मनाक एवं दुखद यह है कि बेटियों की इस चुप्पी के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं। कितना निष्ठुर हो गया है हमारा समाज! सामाजिक एवं राजनीतिक छवि का बंधन आत्मा की आवाज़ को मार रहा है। पत्थर होते दिल, बहते आँसूओं के सच और झूठ की परख करने का दावा ठोक रहे हैं। पत्थरों का भावनाओं से संबंध नहीं होता, वे क्या आँसूओं का दर्द समझेंगे? ये पत्थरों के दिल, पर फिर भी बुजदिल? यूँ डर-डर कर जीने से बेहतर है, लड़-लड़कर मर जाना।
जब सत्ता निरंकुश होने लगती है, तब क्रांति का बिगुल बजता है। निरंकुशता का जो मुँह अहंकार में चूर हो आसमान की ओर उठता चला जाता है, वह यह भूल जाता है कि पैर यदि जमीन से उठने लगते हैं, तो संतुलन डगमगा जाता है। और फिर उस मुँह पर लगी मिट्टी उसे जमीनी हकीकत को स्वीकार करने के लिए बाध्य हर देती है। जंतर-मंतर पर बैठे जमीनी खिलाडियों ने इस देश की मिट्टी को पूजकर उसके सम्मान को विश्वपटल पर तिरंगे के साथ लहराते हुए पूरे देश को गौरवान्वित किया है। वे आज आसमाँ की ओर मुख किए सत्ताधारियों से अपने आत्मसम्मान को बचाए रखने की गुहार कर रहे हैं। शर्मिंदा तो सत्ताधारियों को इसलिए ही हो जाना चाहिए कि आत्मसम्मान को बचाए रखने के लिए भी देश के इन गौरवों को जंग की भांति लड़ना पड़ रहा है। पर निर्लजता का आलम यह है कि बेटियों के सम्मान का राजनीतिकरण कर सत्ता धारण करने वाले आज मुँह में दही जमाए बैठे हैं। दुनिया को मन की बात सुनाने वाले आज गूंगे हो बैठे हैं। सुना था कि बोलने में माहिर हैं ये! सही ही था। यूँ ही बोलते जाना आसान है, पर संवेदनशील हो बोलना, ये इंसानों की पहचान है। यूँ तो बोलते हमने तोते को भी सुना है। पर अब और तोते की राम-राम नहीं सुनेंगे। जो देश के दर्द को समझ देश की बात कहेगा, उसी की बात हम सुनेंगे। ये जो दर्द का दंश आज देश झेल रहा है, इसमें निकली आह देश के युवाओं को बागी होने के लिए प्रेरित कर रही है। माँ-बेटी-बहन के रिश्तों की लाज रखने वाले भाइयों का उबलता रक्त न्याय पाने के लिए उनके कदमों की चाल को बढ़ा रहा है। यदि क्रांति होती है, तो जिम्मेदार कौन होगा? न्याय की आस करने वाला या अन्याय के साथ शोषण करने वाला? न्याय पाना यदि भारतीयों का संवैधानिक अधिकार है, तो क्रांति को उबाल देने वाला ‘क्रूर’ इसकी जिम्मेदारी लेने का भी साहस रखे। फिर न कहिएगा कि उल्लंघन हो गया…………..

✒️नीरज तोमर
मेरठ।

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