ढूंढने से भी घर में
नही मिलती तुम्हारी निशानिया
होती भी कैसे यहां
तुम तो मेरे दिल में कैद हो
सोचती हूं अक्सर आए दिन
दे दूं रिहाई तुम्हे इस दिल से
बड़ा पेचीदा सा है यह मामला
समझ नही आता कोन है
यहां इस का न्यायाधीश
या फिर कोन है अपराधी
दिल, दिमाग, मैं या तुम
इस का हल ढूंढने में लगती हूं जब
तब सब कुछ लगने लगता है
तुम्हारी ही निशानियां है
इन हवाओं से आती खुशबू हो
या बादलों से बरसते पानी का गीलापन
मिट्टी की सोंधी खुशबू
यह सब तुम्हारी लगने लगती हैं
फिर दिल कहता है
छोड़ो यह सब बातें
उठो चाय बनाओ
फिर उबलती चाय के धुएं में
बनती तुम्हारी तस्वीर कहती है
सारा घर निशानियों से तो भरा है
यहां तक तुम भी तो उसकी निशानी हो
✍️रीतू कलसी
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