हर दिन
सुबह की पहली किरन के साथ
लाज़मी हैं कि जागें
ये जुगनू सी चमकती आँखे
मुस्कुराते होंटो से
कितनी तितलियाँ बिखेरतीं
किलकारियों में गूँजती
कितनी बाँसुरियों की आवाज़ें
पायलों की रुनझुन में
डगमग कदम उठातीं
ये नन्हीं परियाँ
मकानों को घर बनाती
वीरानियों को सजातीं
अगर कोख में मरने से बच जातीं
अगर बोझ न समझीं जातीं
देवी नहीं
तो कम से कम
जीव ही समझीं जातीं
लाज़मी था कि
कितना कुछ बदल पातीं
ये नन्हीं परियाँ
हर सुबह
कविताओं में नहीं
हकीकत में
मुस्कुराती ,गुनगुनाती
बाँटती कितनी ख़ुशियाँ
सजातीं कितनी उजड़ी
सूनी दुनियाँ
ये बेटीयाँ
अगर बेटी होने के
अपराध से बच जातीं
काश! बच जातीं

✍️सिम्मी हसन

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