लेख  अशोक बालियान, चेयरमैन,पीजेंट वेलफेयर एसोसिएशन

देश की जनता अपने शीर्ष नेतृत्व को अपना रोलमॉडल मानकर चलती रही है, लेकिन हमें उनके बारे में सच्चाई जानने का भी हक है। साठ के दशक का अंत आते आते देश के शीर्ष नेताओं के जीवन के काले पहलूओं होने लगे थे। भ्रष्टाचार के कई खुलासों से देश के लोगों का सभी नेताओं से विश्वास उठना शुरु हो गया था। इक्कीसवीं सदी आते आते देश की जनता अपने नेताओं की करतूतों को बेबस होकर देखती रही थी।
प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की सरकार को बचाने के लिए ली गई रिश्वत कांड में हमारी युवा पीढ़ी को कोई जानकारी नहीं है। उन्हें यह भी नहीं पता कि ट्रायल कोर्ट ने इस केस में शामिल प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव व बुंटा सिंह को तीन वर्ष की सजा सुनाई थी।
प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के समय झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के कई सांसदों और जनता दल (अ) के नेता चौधरी अजीत सिंह पर आरोप लगे थे कि उन्होंने व उनके गुट के कुछ सांसदों ने लोक सभा में तत्कालीन पी.वी. नरसिम्हा सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव (नो कॉन्फिडेंस मोशन) के खिलाफ वोट देने के लिए रिश्वत ली थी। जनवरी 1997 में दाखिल तीसरी चार्जशीट में सीबीआई ने जनता दल (अ) के सांसदों समेत चौधरी अजित सिंह को केस में अभियुक्त संख्या 15 पर नामित किया था।
सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 1998 में पी.वी. नरसिम्हा राव बनाम राज्य केस के ‘झामुमो रिश्वत मामले’ में फैसला सुनाते हुए कहा था कि संसद के अंदर किसी भाषण या वोट के लिए रिश्वत लेने वाले सांसदों को संविधान के अनुच्छेद 105 (2) के तहत अभियोजन से छूट दी गई है। तब कथित रूप से इस केस में शामिल सांसदों ने आपराधिक अभियोजन से छूट की मांग की थी, क्योंकि यह मतदान संसद के अंदर हुआ था।
इस फैसले के पच्चीस साल बाद, पांच जजों की पीठ जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर, बी.आर. गवई, ए.एस. बोपन्ना, वी. रामसुब्रमण्यम और बी.वी. नागरत्न इस सवाल पर विचार कर रहे हैं कि क्या इस फैसले पर एक बड़ी पीठ द्वारा पुनर्विचार की आवश्यकता है। इस मामले में यह सवाल उठा था कि अनुच्छेद 105 (2) के तहत क्या संसद के किसी सदस्य को उसके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही में खुद को बचाने के लिए कोई छूट है?
जुलाई 1993 में, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेता अजय मुखोपाध्याय संसद के मानसून सत्र में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लेकर आए थे, लेकिन यह अविश्वास प्रस्ताव आखिर में 14 मतों के अंतर से गिर गया था। इसके कुछ दिनों बाद वर्ष 1996 में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को एक शिकायत मिली थी और इस शिकायत में आरोप लगाया गया था कि झामुमो के कुछ सांसदों और जनता दल (अ) नेता चौधरी अजीत सिंह के गुट को पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार को वोट देने के लिए रिश्वत दी गई थी।
सुप्रीम कोर्ट में पी.वी. 17 अप्रैल, 1998 को नरसिम्हा राव बनाम राज्य केस में पांच सदस्यों की बेंच में के जस्टिस एस.पी. भरूचा, एस. राजेंद्र बाबू ने फैसलें में कहा था कि चौधरी अजीत सिंह, जो कथित तौर पर साजिश में शामिल थे, लेकिन उन्होंने वोट नहीं डाला है, इसलिए वह अनुच्छेद 105 (2) के तहत सुरक्षा के हकदार नहीं हैं।
चौधरी अजीत सिंह पर यह भी आरोप था कि उन्होंने अविश्वास प्रस्ताव (नो कॉन्फिडेंस मोशन) के खिलाफ वोट देने के लिए रिश्वत ली थी, लेकिन फिर वोट डालने नहीं गए थे। लेकिन इस अविश्वास प्रस्ताव आने के कुछ महीनों के बाद चौधरी अजित सिंह अपनी बची-खुची पार्टी समेत कांग्रेस में चले गए थे और नरसिंह राव ने उन्हें खाद्य मंत्री बना दिया था।
सुप्रीम कोर्ट के इन दोनो जस्टिस ने यह भी कहा था कि चौधरी अजित सिंह (अभियुक्त संख्या 15) एक लोक सेवक थे, संसद सदस्य होने के नाते, जब उनके खिलाफ आरोपों का संज्ञान लिया गया था। उन पर भारतीय दंड संहिता की धारा 120बी और उक्त अधिनियम की धारा 7 और 13(2) के तहत गंभीर अपराधों का आरोप लगाया गया है। उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 120बी के तहत आरोप की सुनवाई चलनी चाहिए। लेकिन पांच में से तीन जजों की बेंच ने निर्णय में सांसदों को संविधान के अनुच्छेद 105 (2) के तहत अभियोजन से छूट दे दी थी। और इस प्रकार बहुमत से सुप्रीम कोर्ट ने उनके खिलाफ सभी मामलों को खारिज कर दिया था।
चौधरी अजित सिंह अपने राजनैतिक सफ़र में हर चुनाव में 4-5 लोकसभा और 24-25 विधानसभा सीटें जीत जाते थे। और गठबंधन की राजनीति के दौर मे उनकी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए यह काफ़ी था। इन्हीं के दम पर चौधरी अजित सिंह हर सरकार में मंत्री बन जाते थे, चाहे वह वर्ष 1989 में वीपी सिंह की सरकार हो या वर्ष 1991 में नरसिंह राव सरकार हो और वर्ष 1999 की वाजपेयी सरकार हो या फिर वर्ष 2001 की मनमोहन सिंह सरकार हो।
लेकिन चौधरी अजित सिंह की मनमानियों के कारण एक समय ऐसा भी आया कि उसकी पार्टी का देश में न कोई विधायक रहा था और न ही कोई सांसद रहा था। हमारा मानना है कि भारत के राजनेताओं पर जनता को आँख मींच कर भरोसा नही चाहिए।

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