पितृ दिवस की शुभ संध्या में, “लम्हे ज़िंदगी के” मंच से पिता को समर्पित काव्य गोष्ठी का आयोजन, मंच की संस्थापिका पूजा भारद्वाज ने किया। काव्य गोष्ठी ऑन लाइन रही और 13 काव्य प्रेमियों ने इसमे अपनी अपनी रचनाएं पढ़ीं। इस काव्य गोष्ठी की विशेषता यह रही कि बेटियों का योगदान इसमे अधिक रहा। पिता के प्रति स्नेह, प्रेम और पिता की छाया, बेटियाँ कभी भूल नहीं पातीं। भाव विभोर कर देने वाली कविताएं सस्वर पढ़ी गईं। जिनमे पिता का वृहत रूप प्रायः प्रत्येक कविता मे मिला। बिटिया के हाथ से बनी टेढ़ी मेढ़ी रोटी भी पिता अमृत समझ कर खाता है, तो बेटे के माथे पर यश चंदन की छाप देने की जिम्मेदारी भी पिता ही लेता है।

बेटियाँ पिता से रूठ जाती हैं तो पिता बेटियों को मनाते हैं और बेटे रूठ जाते हैं तो खेलने भाग जाते हैं। पिता और संतान का यह संबंध, बचपन से लेकर पूरे जीवन भर चलता हुआ, अद्वितीय होता है। बाह्य जगत मे जीवन की राह दिखाने वाला पिता ही होता है लेकिन अगर बचपन मे ही पिता से विहीन होना पड़े तो पिता का रूप माँ को ले लेना पड़ता है। कवियत्री गणों मे अर्चना झा, बबली सिन्हा, शैली त्रिपाठी, स्मृति श्रीवास्तव, मीरा श्रीवास्तव, संगीत चौहान, रजनी शर्मा, सोनिया सरीन, अर्चना शर्मा, पूजा भारद्वाज ने पिता के स्नेह को याद किया, उनके साथ बचपन मे गुजरे लाड दुलार की स्मृति में भाव पूर्ण कविताएं सुनाईं तो कवि गणों मे प्रमोद मिश्र “निर्मल”, एन सी खण्डेलवाल एवं प्राणेन्द्र नाथ मिश्र ने पिता के चिरऋणी होने की कविताएं सुनाकर पिता को प्रणाम किया।

काव्यमयी, संतुलित और सुगठित संचालन का भार अर्चना शर्मा ने बखूबी संभाला और यह रोचक कार्यक्रम प्रायः डेढ़ घंटे तक पिता के प्रति संतानों के प्रेम से सराबोर होता रहा। कुछ रचनाएं आज के बूढ़े माँ बाप की अनदेखी और लाचार बूढ़े पिताओं की दिशा और दशा भी बता गईं। पाश्चात्य सभ्यता का असर, पिता की पीड़ा, रिश्तों मे घटते हुए स्नेह और भौतिकवाद मे डूबा युवा वर्ग का कड़वा सच भी पिता की वेदना के स्वर मे सुनने को मिला।

भारत की संस्कृति और सभ्यता पिता को ईश्वर का रूप देती है, पूज्य मानती है और रोज़ याद करती है, आशीष लेती है। इसी सिलसिले को पाश्चात्य सभ्यता ने पितृ दिवस के रूप मे स्वीकारा है। हम भारतीयों के लिए यह दिन पितृ उत्सव का दिन रहता है जिसे आज “लमहें ज़िंदगी के” मंच पर बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया गया और संदेश दिया गया कि पिता से हम हैं और हम पिता के हमेशा ऋणी हैं। पिता हमारे परिवार के वटवृक्ष हैं और इस समाज के मूल स्तम्भ।

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